कई साल हो गए हैं
मुस्कुराए हुए...
कई शाम बीत गईं हैं...
जश्न मनाए हुए...
जज़्बात सच्चे मेरे थे...
धोके मिले हर कहीं..
झूठी ज़िंदगी में.. घुट घुट के मरते यहीं।
भीड़ है गुज़रे सौ दफ़ा
वक़्त पता ही नहीं..
जागे हुए.. हैं या सोए हुए..
फ़र्क पता ही नहीं..
सहमी सी ज़िंदगी..
ठहरी सी तिश्नगी..
ज़िंदा रूह मर सी गई...
रास्ते पर ना है घर
भटकूं मैं दरबदर
जीती हूँ मैं इस क़दर
दर्द लिए मैं घूमूं फिरू...
ये है बहाना मेरा
पत्थर सी ज़िंदगी में...
झूठा ज़माना तेरा..
शीशे में देखूं जो मैं
पहचान पाऊँ नहीं
रूह मेरी ... परछाई मेरी
जश्न मनाए कहीं
सांसें चल रही हैं..
धड़कन में शोर नही
बेरंग ज़िंदगी में..
लगे मौत कब थी हुई..